दोहा –
विश्व रूप परमात्मा, एक ही रूप अनंत। हौं वरणत हूं, ‘प्रेम निधि’ जय जय श्री भगवंत।।
जब जब खल दूषत धरा, तब तब करत सहाय। भू कौ भार उतार प्रभु, आपुन प्रगटत आय।।
कवित्व –
विश्व रूप आत्मा अनंत गति ध्यावे शंभु, नेति नेति भेद विधि बताओ है।
पोषण, भरनि, विश्वनाथ बस दासन के, परम पुरुष परिपूरण गिनायो है।
भनै निधि प्रेम, भगवंत के भजन बिनु, वृधा नर देही, श्वान, सूकर सम गंवायो है।
पायो भाव सागर कौ पार जिन सहज में, कमला के कंस को विमल जस गायो है।
कवित्व –
लोक लोक, थोक थोक, वोकन, विलोकें जाय, साहिबी समर्थ, जड़ जन्तुन सम्हार वो।
दीन बन्धु, दया सिन्धु, सदा शरणाई राखि, निपट निपक्षिन के पक्ष प्रतिपार वो।
भनै “निधि प्रेम” सब जानत हौ अंतर की, तिनसो कहा कहिं प्रगट उधारिवो।
करुणा निधान मोहि अमिति भरोसो राम, गज पै निहारे ऐसे मोहिपे निहार वो ।।१।।
दू:सासन, द्रोही, दावि, जोरि कर खेच्यो जब, छोर न कढ़यो, भुज रहे थकि पीर में।
अर्जुन, भीमसैन, देव न सहाई भये, कुमति कौ खुल्यो पंथ कौरव की भीर में।
दीनन की टेर सुनि, देर न करी है कहुं, भनै ‘निधि प्रेम’ अशुभाई बल वीर में।
करुणा निधन करि करुणा विलोको नाथ, करुणा दिखाई जैसी द्रोपदी के चीर में ।।२।।
तेज के निधान खम्भ फारिकें प्रगट भये, जन हित कारी नर हरि वपु धारयो है।
चौक्यो चतुरानन, चिंघाड़ रहयो चन्द्र चूड़, रमा चकवानी, रूप अलख निहारयो है।
भनै “निधि प्रेम” भक्त वत्सल कहाये ताते, भक्तन के काज, व्रत कबहुं न टारयो है।
ऐसेई अब दुष्टन को कीजिए वध श्रीनाथ, जैसे हिरणाकुश को हृदय विदारयो है ।।३।।
एक ओर कूकर कतारन सों आये दौरि, एक ओर नृपति समूह युत ठाड़ो है।
एक ओर दीरघ हमारे कूं दबायो भयो, एक ओर पवन प्रचंड जोर खाड़ो है।
भनै “निधि प्रेम”, ऐसे तुम ही कृपा के सिन्धु, मीत दीनन के देखि होत दिन गाड़ो है।
दुष्ट छल छन्दन ते रक्षहु गुपाल मोहि, पारधी के फन्दन ते जैसें मृग काढयो हे ।।४।।
ऐसौ कौन लायक है, करिए पुकार जासौं, सदा सुखदाई शरण अशरण के।
अधम उद्धारन हो, मोसौ ना अधम और, जानत हौ, कुटिल, कुभाव निज मन के।
विरद की लाज करनी ही है कृपा निधान, गरीब निवाज रखवारे पैज पन के।
दशरथ के नंदन महाराज श्री राम चन्द्रजू, जानकी के नायक सहाई होऊ निज जन के ।।५।।
गोपी, ग्वाल, गौअन के रक्षक गुपाल भये, बरस्यो अपार जल महा प्रलय झर कौ।
चारों ओर जोर कर झंझा को पवन बाढ्यो, चिलिन की चांप ते सकल लोक धरको।
भनै ‘निधि प्रेम’ नाथ नख पर धरयो गिरि, ऐसे प्रभु छोड़ि धिक आसरो है नरन कौ।
इन्द्र की कलाप ब्रज बूढ़त बचाय लियो, मेरे तौ भरोसो वाही राधिका के वर कौ ।।६।।
कूबरी कुटिल अङ्ग सुन्दर सहाई भई, ऐसी सुखदाई कि निकाई नन्द नन्द की।
जा दिन ते पत्नी प्रत्यक्ष करी पलहूं में, अचल धरती धरा भई दुःख द्वन्द की।
भनै “निधि प्रेम” सुत भारही के भारत में, जीवत बचाये दया करुणा के कंद की।
कहा करि सकै कोऊ दुष्ट छल छन्द करि, जापर सुदृष्टि होत वृन्दावन चन्द की ।।७।।
दुष्टन सताओ मति, कुटिल विचार मूढ़, माया करि गूढ़ जैसी असुर समाज की।
जिनके दलन हार तुम ही मुरारि, मधुसूदन मुकुन्द कर चक्र छवि छाज की।
टेरत हौं दीन रट देर न विचारो नाथ, भनै “निधि प्रेम” बात करुणाई लाज की।
सुनियो फिराद महारानी रानी राधिकाजू, हौं तौ पुकारत ठाड़ौ पौरि ब्रजराज की ।।८।।
केवट की करनी भई ताकि वे कौन नाथ, पांय धोय प्रगट चढाये जिहि नावरी।
व्याध वनवासी मीति निपट निषाद करयो, भुज भरि भेट्यो कर भरत कौ भावरी।
चाखे फल सिवरी के, सहज शुचि कीने नाथ, भनै “निधि प्रेम” मिली है कै मति बावरी।
मानि वे में आवति प्रतीत, रीत प्रेम हूं की, जानिये में आवत न राम भगति रावरी ।।९।।
लै गयो पाताल शंखासुर सौ असुर खैचि, लीला रचिवे कौ विधि वेदन में गाये हो।
सुर, नर, मुनि, यक्ष, किन्नर जपत सब, एक ही आधार लोक लोकन में गाये हो!
दुष्टन संहारत हौ, जनहित धारौ वपु, “प्रेम निधि” अमित अपार छवि छाये हो।
रक्षहु गुपाल प्रतिपाल करि मेरो, जैसे मच्छ रूप धरि के प्रत्यक्षता दिखाये हो ।।१०।।
तारी दै महेश, हिय राखत हमेश, पद कोमल कमल दुति चिंता के हरन हैं।
जिनके गुण गावत शारद सहस मुख, अमित प्रशंस वेद तारन तरन है।
नारद जपत, जिन्हें चांपत रमा के कर, भनै “प्रेम निधि” वे ही अशरण के शरण है।
करुणा कराई सदा संतन के हितकारी, दुष्ट गर्व प्रहारी चक्रधारी के चरण हैं ।।११।।
दोष वंत जो पै चित्त धरिये न मेरो दोष, साहिब के सेवक भरोसें रहत है।
दौरत हैं दौर, गारै जानिकें विशेष हूं है, मरजी गरीब बिन मरजी गहत है।
‘प्रेम निधि” आनाकानी करिवोई उचित नाही, विरद तिहारो शरणागति लहत है।
और कहों कौनसों पुकारि करें केशो राय, जौन जाकौ होत, तौन ताही सों कहत है ।१२।।
मेवा दुर्योधन को त्याग्यो बिनु प्रीति नाथ, जानिवे में आयो न विधान वह पाजी कौ।
चाहौ रंक राजा करौ, राजा ते बनाय रंक, गरीब निवाज हो जैसौ राज राजी कौ।
भनै “निधि प्रेम” करी जेंवत, बड़ाई प्रभु, दया कौ बढ़ाओ, कोप ते पाजहिं बाजी कौ।
रावरी सुदृष्टि ते कहा नहीं भयो, जुग जुग जगत बखानी है विदुर की भाजी कौ ।१३।।
वंध काढ़ि दीनो गाढ़ि कहिन परी तो आन, को कहे बखान दशकंध ते उबेरबो।
हनुमान, जामवंत, नील कपिराज हू कौ, भूल गयो विनती विचारवौ नवेरवो।
जानी प्रेम प्रीति दीन बाली की अवाज लंक, नाईक बनाइ दूर करौ भय पैरवो।
हेरबो तौ ऐसौ “निधि प्रेम” पै कृपा के नाथ, तुरन्त सुन्यो तौ ज्यों विभीषण कौ टेरवो ।१४।।
सुनो ब्रजराज सिरताज लोक लोकन के, आरति के काज प्रभु कबहुं न ऊसरौ।
सुर और असुर पहिचानत न कोऊ मोहि, नर कौ भरोसो कहा कर बौल पुरुसरो ।
भनै “निधि प्रेम” आनि शरण तिहारे बसे, चाहिये सतावे ताहि कमल कपूसरौ ।
मोहन जू मोहि तौ केवल तिहारी आनि, तुमते ऊसीला और सूझत न दूसरो ।१५।।
कुटिल कराल कलि काल कौ कहर देख, करम लीन प्रातः हिते लागति डराईवौ ।
महारमानत हर हू विचार देख, पहरे केवल आधार नाम धीरज धराईवो।
भनै “निधि प्रेम” नाथ बूडतै पैताल, ठीक कहिबौ कहा है जब धनी होवराईवौ ।
द्वारिका के बासी, सुखरासी, यदुराज हरि, काटो भव फांसी जग हांसीन कराईबो ।१६।।
पूतना संहारी तृणावर्त सो पछारयो भूमि, निकसे अधासुर के पेट ते निडरि हैं।
केशी कूट डारयो, तारयो यमला अर्जुन कौ, ऊखल ते उखारि लयो वारी वयस हरि हैं।
भनै “निधि प्रेम” नाग नाथ्यो कूद काली दह, बीच हाथी दांत खेचकें हरायो मल्ल लरि हैं।
कुंजन बिहारी कारी कामरि कंधा पै, वही मोर पच्छ धारी सो हमारी पच्छकरि है ।१७।।
करुणा अनंतन कौ, पावति न पार देव, मूढ़ मति मेरी, गूढ़ गति है बिहारी की।
जानि, जग, गावत, न मानि हौ पुरानी साख, बात की प्रतीत, सांची, आंखन निहारी की।
भनै “निधि प्रेम” राधा के आधार धनी, और को, सम्हारे हैं, पुकार पचिहारी की।
शरण के आये शरणागति नहुहौ हरि, देरि न रहेगी कछु करुणा तिहारी की ।।१८।।
अधम, अभागे, क्रूर, कुटिल कुचाली, शट, द्वार परयो दीन पै दया निरधारिये।
ऐसैन को शरण तिहारो सुन्यो है नाथ, जाकैं कोऊ नाहीं तोपे आपही निहारिये।
भनै “निधि प्रेम” पराधीनता मिटाओ किन, औगुनी देख ताहि तारि येजु तारिये।
श्रीमन मुकुन्द, ब्रज चन्द, करुणा के कन्द, ऐ हो नन्द नन्द मोहि तारियेजु तारिये ।।१९।।
टेरत हौं दीन रट, हेरत न मेरी ओर, गायें मिलवारि खिलवारि ग्वाल जोटी कौ।
जसुधा के प्यारे बहु रची रचना रे, दधिदान लैन हार खोरि सांकरी अगोठी के।
बंशीसुर मंडन हों, व्यापक ब्रह्माण्डन के हो, “प्रेम निधि” धरा दुष्ट खण्डन हा घोटी के।
नन्द के कन्हैया ब्रज रैया मन मोहन जू, भैय्या बलदाऊ के गया कंस चोटी के ।।२०।।
सरल स्वभाव महाराज राजा रामचन्द्र, कौन को न राख्यो, तकि आयो जो शरण है।
चित्रकूट वासी पंचवटी के निवासी, सूपन खां नासिका काटी, खर दूषन हरन है।
मारयो बाण एक ही सों महाबल वान बाली, भनै “निधि प्रेम” जग पोषण भरन है।
सागर के तीर पर पाहन तराये जिमि. वे ही रघुवीर मेरी पीर के हरन है ।।२१।।
आशा लगौ आसरौ विचारौ वही विरद कौ, सुर, नर, मुनि संत, संकर हू जपत है।
अंतस की जानिकै, न मानि हो तौ जोर कहा, जासौं कौन, कहै तौन, आप ते लषत है।
याही ते पुकारों “निधि प्रेम” के गुसांईं हरि, देर जिन करो हियो, हहरौ पकत है।
दुष्टन के वश ते बचाई लेओ केशोराय, जाहि तुम राखो, ताहि मारि को सकत है ।।२२।।
मच्छ, कच्छ, शूकर निगम गावें, नरहरि, (भेष) बाम्हन है बलि पै, पुहुम पेड़ भरै हो।
प्रगटे परुषराम क्षत्री विनि कीनी छिति (पृथ्वी), राम होई अवधि ईश, बीस भुज धरे हो।
झरहयो पछारे कंस जगन्नाथ नहीं कलंक, भनै “निधि प्रेम” और कौन लै खरे हो।
जान हो करुणा को छोडिहो न केशोराइ, कुरुणा के कारण अनंत रूप धरे हो ।।२३।।
रसना वही है राम नाम के रंगी है रस, संगति वही है संत सेवन धरन सों।
नैन ऐसे वेई, छवि छाके घनश्याम तन, दैवो हरि हेत वनि आवे जो करन सों।
भनै “निधि प्रेम” हियो सोई जिहि प्रेम वसौ, भक्ति कीजिये विचार न वरण, अवरण सों ।
जीवन जनम नर देही कौं सुफल जोई, करि है सनेह सीताराम के चरणसों ।।२४।।
धुआ कैसी धारा है, तारा, त्रिवेनी जिमि, दीन कै उद्धारन ज्यों वरुण कोदीसी है।
गंग की तरंग, अंग, पापनि विनासिवे कों, न रह दासी की प्रतिग्या नरनीसी है।
भनै “निधि प्रेम” सीताराम की कृपा कौ मूल, दुष्टन को सूल कोटि जनमत पच्चीसी है।
आगत करन शरणागति को सुनौ सीत, करुणा निधान जू की करुणा पच्चीसी है ।।२५।।
दोहा –
सकल गुनाह छुड़ाई कें, मोपे दीजें चित्त ।
मैं गरीब तेसे सदा आसा राखो नित्त।।
।।इति करुणा पच्चीसी संपूर्ण।।